Sadhana Shahi

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लेखनी कहानी -29-Jan-2024

ह्रदय नदी सूखी है

युद्ध अस्त्र-शस्त्र से नहीं , कई बार शब्दों से भी होता है, अस्त्र-शस्त्र के युद्ध में शरीर घायल होता है , और शब्दों के युद्ध में आत्मा।

अस्त्र-शस्त्र के युद्ध में जहाॅं लाशें बिछती हैं , वही शब्दों के युद्ध से, व्यक्ति कुंठित होता है , व्यथित होता है, कई तरह की मानसिक बीमारियों से ग्रसित होता है।

यह युद्ध सदा से चलता रहा है, और सदा चलता रहेगा, इसे समाप्त करने हेतु हमें अपने अंदर की अति महत्वाकांक्षा, राग, द्वेष जैसी बुराइयों का समूल नाश करना होगा, और उसके स्थान पर दया, धर्म ,परोपकार, शालीनता जैसी सद्वृत्तियों का रोपण करना होगा।

युद्ध चाहे शब्दों का हो या शस्त्रों का, इसमें धराशाई होता है, प्यार, विश्वास, अपनापन, सौहार्द्र, जिसे अर्जित करने में हमारी उम्र बीत जाती है, और खोने में पल भर भी नहीं लगता।

मन पर बोझ लेना इसका कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि, यह दुनिया में अनल्प है , अल्प नहीं है। इसे अल्प करने हेतु आवश्यकता है, दूसरों की उन्नति को देखकर प्रसन्न होना , स्वयं भी उस पथ पर अग्रसर होना , ना कि दिन-रात उसके असफलता की कामना करना।

क्योंकि, युद्ध का कारण ही है प्रेम की कमी, अतः,अब रिश्तो में नहीं रह गई है कोई नमी, यही वज़ह है कि संसार के हर संबंध विकृत हैं, आज के मानव रोग ग्रसित यकृत हैं।

जहाॅं प्रेम की है कमी , वहाॅं नफ़रत, द्वेष , ईर्ष्या करते हैं चहलक़दमी, जहाॅं प्रेम नहीं वहाॅं सुगंध की आस नहीं , जहाॅं सुगंध की आस नहीं, वहाॅं बुझती कोई भी प्यास नहीं।

प्रेम के अभाव में , बस बचता है प्रलाप, जहाॅं चौबीसों घंटे , आठों प्रहर होते हैं बेतुके वार्तालाप, दिन- रात होते हैं छल और प्रपंच, घर- घर नहीं रहता, बन जाता है वाक युद्ध का मंच।

मैं भी इस संसार की एक निरीह प्राणी हूॅं, जो दिन-रात सुख-दुख, सद्विचार - दुर्विचार के भॅंवरजाल में खड़ी हूॅं, निकलना भी चाहती हूॅं इस भॅंवरजाल से , पर कैसे ? मैं अपने द्वारा अपनों को दी गई, एक विषम खाड़ी हूंँ।

हाॅं, मैं यह सोच कर खुश हूॅं कि मैं , अति महत्वाकांक्षा ,लोभ, लालच ,ईर्ष्या ,द्वेष से ग्रसित नहीं हूॅं, इसीलिए ,आज मैं थोड़ी परेशान जरूर हूॅं पर द्रवित नहीं हूॅं, दुख इस बात का है कि लाख कोशिशों के बाद भी हम एक न हो सके, तेरे अंदर के मैल को , अपने प्यार, सेवा,मान- सम्मान से न धो सके।

अब मैं समझ गई हूॅं कि अब हम कभी एक नहीं हो सकते, अपनी जान भी दे दूॅं तब भी तेरे मैल नहीं धो सकते, अब बस , मैं अपने कर्मों को करते जा रही हूंँ , और जिसने जीवन में ज़ख्म दिया , उसे भूलकर अपने जख्मों को भरते जा रही हूंँ।

अब मुझे समझ आ गया है, बेवजह किसी को चाहना, मान -सम्मान देना एक बेवकूफी़ है, पत्थर दिल से प्यार की चाहत रखना, यह एक बहुत बड़ी गूफी है, जिसे मैं बार-बार करते आई, और इस तरह मेरे ऊपर दुखों की बदरी घहराई, किंतु ,उनके ह्रदय नदी में जल नहीं , वो तो बिल्कुल सूखी है ।

साधना शाही,वाराणसी

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2 Comments

Gunjan Kamal

02-Feb-2024 04:39 PM

शानदार

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Mohammed urooj khan

31-Jan-2024 12:54 AM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

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